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कविता

उज्जैन, मुझे माफ करना

अर्पण कुमार


कल ही की तो बात है
दिन भर घूमा किया
अपने कई साथियों सहित
उज्जैन में,
अवंतिका के अलग-अलग
स्थलों पर जाकर
खूब पास से देखा, महसूसा
और छुआ भी
निरंतर कृशकाय और
मैली होती शिप्रा को
शिप्रा, जिसे कभी अमृत-संभवा
व ज्वरध्नी कहा जाता था
हमारे शास्त्रों और स्मृति-लेखों में
हमारी दिनचर्या में भी

होली के पूर्व आगमन पर
महाकाल की नगरी में
इस तरह समूह में घूमना
याद रहेगा
कई-कई वसंत

कृष्ण-सुदामा के मैत्री-स्थल
माने जानेवाले
इस पुरातन शहर में
कुछ नए मित्र भी बने
इस आकांक्षा और
संकल्प के साथ किंचित
कि निबाही जा सके
मित्रता यथासंभव
इस स्वार्थ-संकुल
कलिकाल में भी

आज सुबह
जब मैं अपनी जोड़ी भर जुराबें
धो रहा था
मालवा की मिट्टी
साबुन के झाग की
धुलाई-क्षमता पर
भारी पड़ रही थी
(कल दिन भर अपनी जुराबों में
घूमता रहा उज्जैन में यहाँ-वहाँ)
क्या अद्भुत संयोग है कि
सुबह-सुबह ही मुझे
मालवा की मिट्टी से
धुलेंडी खेले जाने का
गाढ़ा बोध हुआ
जिसके गवाह हैं
विक्रम विश्वविद्यालय के
अतिथि निवास के स्नान-घर
का फर्श और उसकी दीवारें

उज्जैन!
मुझे माफ करना
मैं ले जा रहा हूँ
तुम्हारे कुछ रंग
अपने साथ, दिल्ली तक
कैद करके उन्हें
अपनी जुराबों में
जिन पर अनछुए रह गए
तुम्हारे कुछ निशान
लाख प्रक्षालन के बाद भी

अगली बार
जब आना होगा उज्जैन
घूमूँगा इसकी मिट्टी पर नंगे पैर
कई-कई दिन
और फिलवक्त तो नहीं है
मगर निरंतर घूमने से
जब अपन के पैरों में भी
सुदामा के पैरों सी
बिवाइयाँ फटेंगी तो
उन बिवाइयों पर
लेप लगा सकूँगा
पंचकोशी की उखड़ी-उखड़ी
मगर शीतल मिट्टी की

धन्य है उज्जैन
मैं यहाँ की मिट्टी पर
अपना मस्तक नवाता हूँ।


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